गुलमोहर : प्रेम में देव से 'महादेव' हो जाने की कहानी

सुनते ही आंखें पौंछकर देव उठता और बिना लोगों की परवाह किए उछल-उछल कर बंदर नाच दिखाता। पारो खूब ताली दे देकर हंसती....

गुलमोहर : प्रेम में देव से 'महादेव' हो जाने की कहानी

फीचर्स डेस्क। वे दोनों प्रेम के पंछी थे। जिस डाल बैठते, सभ्य मनुष्य डाल हिलाकर हाउ हाउ कर उन्हें उड़ा देते। आख़िर कितने  दिन और कितनी देर आसमान में उड़ते! ठांव तो परिंदों को भी चाहिए! हार कर उन दोनों ने गांव के बाहर एक निरापद स्थान ढूंढ लिया। दूर निर्जन में पहाड़ के पास एक पथरीली जमीन थी, जिस पर पत्थर के सिवाय कुछ और ना उगता था। दोनों ने तय किया 

"यहां इश्क़ उगाएंगें!

मोहब्बतों का बगीचा सजाएंगे!"

गांव से अपनी जमात के कुछ परिंदों को साथ लिया और लगे पत्थर खोदने। देखते-देखते अपने बूते से कुछ अधिक पहाड़ हटाया और पड़ोस के गांव से मिट्टी लाकर फैला दी। प्रेम के कच्चे धागे से मेड़बंदी कर दी।

पारो और देव आज बगीचे के लिए पौधे लाने शहर की नर्सरी गए थे।

"मैं तो बगीचे के लिए चंपा खरीदूंगा सफेद फूल वाला। फिर तुम्हारे रेशमी बालों के जूड़े में लगाऊंगा पारो। तुम खूब बल खाते हुए इतरा-इतरा कर चलना।"

देव ने आधी खुली आंखों में सपने भरते हुए कहा।

"मैं तो गुलमोहर खरीदूंगी देव, मेरे इश्क़ के केसरिया रंग वाला फिर एक दिन तुम पर केसर चढ़ाकर तुम्हें देव से 'महादेव' कर दूंगी। फ़िर जोर... से कहूंगी ओम नमः शिवाय!"

पारो आंखों में इश्क़ भर कर हंसते हुए बोली।

दोनों ने खूब सारे चंपा और गुलमोहर खरीदे और लाकर अश्रु गीली मिट्टी में रोप दिए। पारो की आंखें नीली थी सो बगीचे का नाम देव ने रखा 'नीलाक्षी उपवन'।

दिन - बेदिन दोनों पंछी गांव के कोलाहल से क्षुब्ध होकर यहां उड़ आते। भूख लगती तो साथ रहने की कसमें खाते, प्यास लगती तो एक दूजे के अश्रु पीते। कभी-कभी पारो पेड़ों के झुरमुट में छुप जाती और देव को खूब छकाती, जब देव घुटनों के बल बैठकर बच्चों की तरह रोता, जमीन में लौट जाता तो वह ताली बजाती हुई जाने कहां से प्रकट हो जाती और अपनी नीली- नीली आंखें नचाती हुई कहती-

"ए देवा.... मैं कहीं नहीं गई रे ! और कहीं नहीं जाऊंगी! कभी भी नहीं जाऊंगी अपने देव को छोड़कर!"

सुनते ही आंखें पौंछकर देव उठता और बिना लोगों की परवाह किए उछल-उछल कर बंदर नाच दिखाता। पारो खूब ताली दे देकर हंसती।

वह दोनों जब साथ होते तो नीलाक्षी उपवन नंदनकानन हो उठता। यूं ही दिन गुजर रहे थे।फूल आने में लगभग एक माह बाकी था, कि देव को काम के सिलसिले में बाहर जाना पड़ा।

पारो अकेली रह गई।

आज देव आंखों में मिलन के सपने भरे परदेश से लौटा है। पारो को घर न पाकर सीधा नीलाक्षी उपवन की डगर भागा चला जा रहा है।

गुलमोहर के फूलों से आज नीलाक्षी उपवन केसरिया हो रहा है, पर पारो उसे कहीं दिखाई नहीं दी। कभी इस चंपा के पीछे कभी उस गुलमोहर के पीछे बेतहाशा चक्कर लगाने के बाद, हांफ कर देव घुटनों के बल बैठ गया इस उम्मीद में कि पारो किसी पेड़ के पीछे से निकलकर आएगी और कहेगी "ए देवा.... मैं यहीं हूं रे!"

तभी पत्तियों की सरसराहट से देव की तंद्रा भंग हुई और उसने भीगी दृष्टि से देखा कि पारो बालों में सफेद चंपा का फूल लगाए एक पेड़ के पीछे से निकली है, उसके आंचल की झोली में गुलमोहर के केसरिया फूल हैं।

जिधर पारो जा रही है उधर कोने वाले गुलमोहर के नीचे एक सुदर्शन युवक आंखें बंद कर बैठा हुआ है। पास जाकर पारो ने अपनी फूलों से भरी झोली उस व्यक्ति पर उंडेल दी।

शेखर ने अपने कानों में  ध्वनि सुनी

"देखो मैंने तुम पर केसर चढ़ा दी है, तुम महादेव हो गए!

ओम नमः शिवाय!"

और दोनों खिलखिला कर हंस पड़े।

उधर देव ने अपनी आंख से टपकते हलाहल को पिया और मन ही मन कहा चलो गरल पीकर आज हम भी 'महादेव' हुए!

"ओम नमः शिवाय!"

इनपुट : प्रेम शर्मा, अलवर, राजस्थान।