क्या फर्क पड़ता है...

खंडाला से वापसी में कार चलाते हुए हरीश की बगल में बैठी छवि को आत्मग्लानि होने लगी। उसको हरीश को बनाए संबंध पर अब पछतावा हो रहा था। वह तो संस्कारों में बंधी एक भारतीय नारी थी...

क्या फर्क पड़ता है...

फीचर्स डेस्क। छवि और संजय का अलग होना ऐसा ही था जैसे किसी दिए से उसकी बाती का बिछड़ जाना। वह संजय के जाने के बाद बुझी बुझी सी रहने लगी थी। लेकिन अपने संस्कारों में बंधी छवि अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध अपने जीवन का फैसला नहीं लेना चाहती थी। इसलिए न जाने  संजय के साथ  संजोए अपने  कितने सपनों को तोड़कर उसने संदीप से विवाह किया था। और भारतीय संस्कारों में पली बढ़ी  कोई स्त्री जब विवाह के बंधन में बंध जाती है तो पति और उसके परिवार के प्रति कर्तव्य वहन ही उसका जीवन बन जाता है। वह अपने हृदय को एक विशाल कब्र बनाकर अपनी मोहब्बत को दफन कर उसके ऊपर भविष्य के सपनों का महल खड़ा करने में जुट जाती है। हालांकि उसका अपना कोई सपना नहीं रह जाता लेकिन परिवार की खुशियों में ही वह  अपनी खुशियाँ  ढूंढने लगती है परंतु क्योंकि वह एक इंसान भी है इसलिए अपना अतीत भूलने में उसे कुछ समय लगता है और यदि उसको अपने पति का प्यार मिल जाए तो वह जल्दी ही अपना अतीत भुलाकर आगे बढ़ने लगती है लेकिन अगर उसे ससुराल में अथवा पति से तिरस्कार मिले तो धीरे-धीरे वह टूटने लगती है। छवि के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। हालांकि ससुराल के बाकी लोगों से उसको कोई शिकायत नहीं थी  परंतु अगर पति से ही मन ना मिले तो बाकी सब रिश्ते कोई अर्थ नहीं रखते।  

जब छवि ससुराल में आई तो वह काफी उदास थी और उसे बार-बार संजय की याद आने लगती। उसकी आंखों का लाल रंग उसके सुर्ख जोड़े से मेल खा रहा था। मौका मिलते ही वह अपने आंसू पोंछने लगती। घरवालों को लगा कि मायके से अलग होने के कारण छवि उदास है। इसलिए जैसे ही छवि की सास ने उसके सर पर हाथ रखा तो वह जोर जोर  से रोने लगी।

"बेटी इसको आज से अपना घर समझो और मुझे अपनी मां। देख लेना एक दिन तुम यहां सबका स्नेह पाकर अपने मायके को भूल जाओगी।" सास के ममता भरे वचन सुनकर छवि का मन उनके लिए श्रद्धा से भर गया। कुछ रस्मो-रिवाज के बाद रात को छवि की ननंद उसे संदीप के कमरे में छोड़ आई। छवि जाकर सिमटी हुई सी पलंग पर बैठ गई। उसने चारों तरफ नजर घुमाकर देखा तो सामने दीवार पर संदीप की एक बड़ी सी फोटो लगी थी शायद कॉलेज के समय किसी पिकनिक की थी। छवि भाव विहीन उस फोटो को देखती रही। उसे न तो फोटो में दिलचस्पी थी ना ही संदीप में। ऐसा लगता था जैसे उसके आंचल के साथ कोई भारी पत्थर बांध दिया गया हो जिसका बोझ ताउम्र उसको ढोना होगा।

सगाई के समय छवि की संदीप के साथ मुलाकात अवश्य हुई थी लेकिन उस समय छवि की ना तो संदीप को देखने की इच्छा थी ना ही बात करने की। वह बस एक आज्ञाकारी बेटी बनकर सब कर्तव्य निभाती चली जा रही थी। घर के सभी लोग काफी खुश थे। उसकी सहेलियां एवं चचेरी बहनें संदीप से चुहलबाजी कर रही थी और छवि को अपने आंसुओं में संजय का चेहरा पिघलता हुआ दिखाई दे रहा था। ऐसे लग रहा था जो संजय कल तक उसकी आंखों में समाया था वह आज आंसू के माध्यम से बहता हुआ दूर कहीं विलीन हो गया था। अचानक उसकी चचेरी बहन ने उसका हाथ अंगूठी पहनाने के लिए संदीप की ओर बढ़ा दिया। छवि अतीत की यादों से बाहर आ गई और उसने सब से छुपाते हुए अपने आंसू पोंछ डाले। कुछ ही दिनों में संदीप और छवि का विवाह हो गया। अचानक  आहट से छवि का ध्यान दरवाजे की तरफ चला गया। दरवाजे पर संदीप कमरे के भीतर प्रवेश कर रहा था। उसने अंदर आकर दरवाजा बंद कर लिया। छवि का मन जोर-जोर से धड़कने लगा। संदीप उसके करीब आकर बैठ गया।

"छवि मैं अपने नए जीवन की शुरुआत में तुम्हें किसी धोखे में रखकर नहीं करना चाहता। मैं किसी और से प्यार करता हूँ लेकिन घरवालों के दबाव में आकर मुझे तुम से विवाह करना पड़ा क्योंकि मालती को बाबू जी अपनी बेटी जैसा मानते थे। मालती दूसरे जाति से संबंध रखती थी और उसके पिता अपने जाति को लेकर काफी कट्टर थे। वे बाबूजी के अच्छे मित्र थे और बाबूजी नहीं चाहते थे कि उनके या उनके परिवार के कारण मालती के पिता के सम्मान को कोई ठेस पहुंचे इसलिए मालती का विवाह बाबूजी ने ही उनकी जाति के एक लड़के से करवा दिया। लेकिन छवि यह जो दिलों के रिश्ते होते हैं न यह आसानी से नहीं टूटते। समाज हमें भले ही बंधनों में बांध देता है लेकिन वह यह भूल जाता है कि वह हमारे शरीर को तो एक रिश्ते में बांध सकता है लेकिन मन को नही। मन स्वच्छंद होता है और यह जहां बंधना चाहता है वही बार-बार चला जाता है। " संदीप की बातें सुनकर छवि की आंखों के आगे संजय का चेहरा घूमने लगा। "रात बहुत हो चुकी है अब तुम सो जाओ।" संदीप के मुंह से यह सुनकर छवि को थोड़ी राहत मिली क्योंकि उसे संजय को भुलाने के लिए कुछ समय चाहिए था। वह किसी भी तरह संदीप के करीब नहीं आना चाहती थी। संदीप ने कमरे की लाइट बंद कर दी।

छवि दोबारा अपने अतीत में खो गई और न जाने कब उसकी आंख लग गई। कहते हैं सोते समय इंसान के मन में चल रहा द्वंद उसके सपनों में साकार रूप लेकर  आ जाता है। उसने देखा संजय लाल कमीज में एक नाव पर सवार होकर किसी गहरे समंदर में उतर रहा है और देखते ही देखते वह उस विशाल समंदर में दूर उसकी आंखों से ओझल होता चला गया। लाल कमीज एक रक्त के कतरे के समान छोटी सी दिखाई देने लगी और फिर कहीं समंदर में ओझल हो गई। छवि की आंख खुली तो उसका तकिया आंसुओं से भीगा हुआ था।

कुछ दिन इसी तरह बीत गए। संदीप और छवि में केवल मतलब की बात होती थी। घर वालों ने उन्हें बाहर घूमने जाने के लिए भी बोला लेकिन छवि ने बहाना बनाकर टाल दिया। संदीप की नौकरी दूसरे शहर में लग गई थी और एक दिन वह सामान बांधकर चला गया। छवि ससुराल में ही रही। फिर कुछ दिनों बाद घरवालों के जोर देने पर संदीप छवि को भी ले गया। छवि के साथ संदीप का व्यवहार धीरे-धीरे बदलने लगा। वह बात-बात पर उससे झगड़ा करने लगता। कई बार झगड़ा इतना बढ़ जाता कि दोनों के परिवार वालों को कई बीच में हस्तक्षेप करना पड़ता। झगड़ा केवल यहां तक ही नहीं थमा। संदीप ने आए दिन छवि पर हाथ उठाना शुरू कर दिया। लेकिन फिर भी दोनों एक छत के नीचे रहते रहे। कभी-कभी संदीप को छवि के ऊपर दया आ जाती और कहीं ना कहीं उसकी अंतरात्मा उसे धिक्कारने लगती। फिर वह छवि को मनाने में लग जाता और छवि भी हालातों से समझौता कर दोबारा मुस्कुरा उठती। लेकिन धीरे-धीरे छवि का दिल पत्थर का होता चला गया। वह संदीप के साथ रिश्ते को लेकर उदासीन हो गई। और जब रिश्ता ठंडा पड़ने लग जाए तो कोई आंच उसमें दोबारा गर्माहट नहीं ला सकती। उनका शारीरिक संबंध भी बस एक जरूरत बन गया और इसकी पहल भी अक्सर संदीप की ओर से ही होती क्योंकि स्त्री जिस से प्रेम करती है वहीं पहल कर पाती है  अन्यथा वह  चुपचाप पुरुष की जरूरत के बलि चढ़ जाती है।

टूटने वाला रिश्ता चाहे कितना भी गहरा हो वक्त के साथ उसकी यादें धूमिल पड़ने लगती हैं। धीरे धीरे कुछ समय बाद छवि और संदीप दो प्यारे बच्चों के माता-पिता भी बन गए। संदीप धीरे-धीरे मालती को भूलने लगा लेकिन छवि और उसके संबंध फिर भी सामान्य ना हो सके। छवि कभी भी मन से उसको अपना ना पाई और वह संदीप को संतुष्ट ना कर पाती थी। इसका परिणाम भी शायद छवि को भुगतना था। इस सबसे तंग आकर संदीप अन्य महिलाओं से मिलने जुलने लगा। कई बार छवि ने उसके मैसेज भी पढ़े लेकिन उसके मुंह से यही निकलता कि तुम अब कुछ भी करो संदीप। क्या फर्क पड़ता है? संदीप के जाने के बाद वह घर में अकेली रह जाती। उसने अपने खालीपन को भरने के लिए नौकरी करने का निश्चय किया और उसे एक अच्छे ऑफिस में नौकरी मिल भी गई। ऑफिस में काम करने वाला हरीश उसके साथ वाली सीट पर बैठता था इसलिए वह ऑफिस में छवि का सबसे करीबी सहकर्मी बन गया। धीरे-धीरे लंच समय में दोनों इकट्ठे ही खाना खाने लगे और दोनों में अच्छी दोस्ती होती चली गई। अब आलम यह था कि हरीश छवि के चेहरे से ही उसकी मनःस्थिति को भाप लेता था। एक रात छवि और संदीप में जमकर लड़ाई हुई और गुस्से में संदीप ने छवि को एक थप्पड़ रसीद कर दिया। थप्पड़ इतना जोरदार था कि छवि की आंख पर चोट लग गई। अगले दिन छवि जब ऑफिस गई तो छवि के लाख छुपाने पर भी हरीश से अपनी चोट ना छुपा सकी। हरीश के पूछने पर छवि एक दम टूट गई और जोर जोर से रोने लगी। जैसे ही हरीश ने सांत्वना देने के लिए उसके कंधे पर हाथ रखा तो वह हरीश के सीने से लिपट गई। वहां उस समय कमरे में कोई और न था और यह अकेलापन उन्हें और करीब ले आया। छवि और हरीश का रिश्ता अब दोस्ती से अधिक आगे बढ़ने लगा। अब मौका मिलते ही वे एक दूसरे के साथ वक्त बिताने लगते और घर जाकर भी घंटों फोन पर चैट करते रहते। हालांकि हरीश भी विवाहित था लेकिन उसने भी अपने पिता के दबाव में आकर एक कम पढ़ी लिखी महिला से विवाह किया था। वह भी अपने जीवन से कोई खास संतुष्ट नहीं था। सभी एक उलझा हुआ जीवन जी रहे थे चाहे वह संदीप हो छवि या फिर हरीश। एक दिन छवि को संजय की याद आई और वह सोचने लगी कि संजय भी कहीं ना कहीं अपना अधूरा जीवन किसी के साथ जी रहा होगा। लेकिन वह अब आगे बढ़ चुकी थी।

 अब छवि के मन में ठहरी प्रेम धारा हरीश के सानिध्य की ढलान पर बह निकली और हरीश उसके लिए एक समंदर बन चुका था जिसमें वह नदी बनकर समा जाना चाहती थी। और फिर एक  दिन हरीश ने उससे कहा" सुनो छवि मैं अब तुम्हारे बिना नहीं रह सकता। यहां तो मिलना मुमकिन नहीं इसलिए कहीं बाहर चलकर कुछ दिन एक साथ बिताते हैं। जहां केवल हम दोनों हों।"

"हां मैं भी यही चाहती हूं अपनी जिंदगी में मैं बहुत टूटी हूं और अब उम्र के इस मोड़पर कुछ जीवन जीना चाहती हूँ। तुम्हारे साथ कुछ खुशियों के पल बटोरना चाहती हूँ। मेरा अधूरापन हमेशा मुझे सालता रहा है।" छवि ने मुस्कुराते हुए कहा और फिर एक दिन ऑफिस टूर के बहाने वे लोग खंडाला चले गए। अब वे रात और दिन एक साथ थे। उनकी शामें सुहानी और रातें कुछ ख्वाब लिए रंगीन थी। एक रिश्ता उनके बीच बन चुका था जो शायद समाज की नज़र में  उचित नहीं था। खंडाला से वापसी में कार चलाते हुए हरीश की बगल में बैठी छवि को आत्मग्लानि होने लगी। उसको हरीश को बनाए संबंध पर अब पछतावा हो रहा था। वह तो संस्कारों में बंधी एक भारतीय नारी थी। उसके जीवन में तीन पुरुषों का प्रवेश उसे अपनी ही नजरों से गिरा रहा था लेकिन अगले ही पल उसकी अंतरात्मा उसके सामने आकर खड़ी हो गई। तुम्हारे पिता ने तुम्हारे प्रेम को अपनी जिद्द की बलि चढ़ा दिया। उन्होंने सोचा कि कुछ दिन रोकर सामान्य हो जाएगी क्या फर्क पड़ता है। संदीप ने तुम्हें कदम-कदम पर अपमानित किया उसने भी यही सोचा कि कुछ समय बाद सब सहज हो जाएगा क्या फर्क पड़ता है?  वह मन से संजय के साथ रही, तन से न हो सकी और संदीप के साथ तन से रही लेकिन मन नहीं मिला। किंतु हरीश के साथ उसने थोड़े समय में ही एक पूर्ण जीवन जिया। तन और मन दोनों मिले। अब चाहे समाज उसे चरित्रहीन समझे भी तो क्या फर्क पड़ता है। यह सोचकर वह मुस्कुरा उठी और उसने अपना सर हरीश के कांधे पर रख दिया।

इनपुट सोर्स : ममता सोनी, कहानीकार व लेखिका, नई दिल्ली।